चौधरी चरण सिंह प्रेरक-जीवन दर्शन
गरीबी और आर्थिक विषमता बढ़ाने वाली नीतियों को उजागर करना प्रारम्भ किया। माया त्यागी कांड साम्प्रदायिक दंगों व फर्जी मुठभेड़ों पर नेताजी आन्दोलन करना चाहते थे, किन्तु चौधरी साहब ने मना कर दिया। उनके बारे में मशहूर था कि वे जिस कार्य को ठान लेते थे, हर हाल में करते थे और जिसे मना कर दिया, उसे कोई ‘‘हाँ’’ नहीं करवा सकता था। लेकिन नेताजी के आग्रह को उन्होंने मान लिया, यद्यपि इसमें कर्पूरी ठाकुर और जार्ज फर्नाण्डिज की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
नेताजी ने पैट्रियाट अखबार में लेख लिखे, ताकि प्रतिकार का वातावरण बने। चौधरी साहब पहले तो हिचके लेकिन बाद में न केवल आन्दोलन की अनुमति दी अपितु स्वयं मार्गदर्शन करने लगे। महीखेड़ा में जनसम्पर्क के दौरान नेताजी पर जानलेवा हमला भी हुआ लेकिन उन्होंने प्रतिकार का स्वर नहीं छोड़ा। उन्हें अपने नेता चौधरी चरण सिंह और अपनी नैतिक ताकत पर पूरा भरोसा था। चौधरी साहब ने पहले सदस्य विधान परिषद् फिर महीपाल शास्त्री जैसे कद्दावर नेता की जगह विधान परिषद् में नेता प्रतिपक्ष बनवाया। नेताजी को विधान परिषद् का नेता प्रतिपक्ष बनाना आसान न था। चौधरी साहब ने तत्कालीन कार्यवाहक विधान परिषद् अध्यक्ष श्री शिवप्रसाद गुप्त को दिल्ली बुलाया और नेताजी को नेता प्रतिपक्ष बनाने की चर्चा की। सदन में लोकदल सदस्यों की संख्या आधी से कम होने के कारण दो अतिरिक्त सदस्यों की आवश्यकता थी। चौधरी साहब के दामाद गुरूदत्त सोलंकी एमएलसी थे लेकिन चौधरी साहब ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया था, नेताजी के लिए चरण सिंह जी ने श्री सोलंकी से बात की। मसूरी से लौटते समय अचानक चौधरी साहब रात के 11 बजे मेरठ शिक्षक सीट से चयनित विधान परिषद् सदस्य बलवीर सिंह दवधुआ के घर पहुँच गए और नेताजी के लिए समर्थन लेकर ही उठे। इस घटना से पता चलता है कि चौधरी चरण सिंह के मन में नेताजी के लिए कितना स्नेह था? और वे मुलायम सिंह जी के महत्व को कितनी शिद्दत से महसूस करते थे? नेताजी ने भी उन्हें निराश नहीें किया। यही नहीं नेता जी 1985 में विधान सभा चुनाव जीतने के पश्चात् उन्होंने राजेन्द्र सिंह के स्थान पर नेता विरोधी दल बनवाया। विपक्ष की राजनीति के सूर्य चौधरी साहब और चन्द्रमा नेताजी थे, दोनों अँधियारे से अपने-अपने तरीके से लड़े। चौधरी साहब के आभामंडल और मार्गदर्शन में नेताजी के सतत् संघर्षाें के कारण उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को अपना मुख्यमंत्री तक बदलना पड़ा। 9 जून 1980 को मुख्यमंत्री बने श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की जगह श्रीपति मिश्र को 19 जून 1982 को बनाना पड़ा। पूरे देश में विशेषकर उत्तर प्रदेश में सरकार विरोधी वातावरण बन चुका था। यह लगने लगा था कि चुनाव सिर्फ औपचारिकता मात्र है, चौधरी साहब को दिल्ली की गद्दी और नेताजी को उत्तर प्रदेश की गद्दी पर बैठाने का मन जनता ने बना लिया है। आपरेशन ब्लू स्टार हो चुका था, इसी बीच 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा जी की निर्मम हत्या हो गई। कांग्रेसियों ने उनके पुत्र राजीव गांधी को प्रधानमंत्री और अपना अगला नेता घोषित कर दिया। लोहिया सच कहते थे कि यह देश तर्कप्रधान नहीं है, यहाँ के निर्णयों में भावना केन्द्रीय भूमिका निभाती है। 1984 के चुनावों में यही दिखा। पूरे देश में कांग्रेस की सहानुभूति लहर में विपक्ष का परचम उखड़ गया। चौधरी साहब स्वयं तो जीते, लेकिन लोकदल को सफलता नहीं मिली। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में लोकदल का प्रदर्शन आशाजनक रहा, नेताजी ने विपरीत परिस्थितियों में भी लगभग 85 सीटों पर जीत हासिल की और स्वयं 57.32 फीसदी मत पाकर जसवंतनगर से विधायक बने। इस जीत ने उन्हें उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति के केन्द्रीय धुरी में ला दिया। इन स्थितियों में चौधरी साहब का स्नेह और विश्वास नेताजी पर और भी बढ़ गया। बिहार में कर्पूरी ठाकुर व उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव सियासी क्षितिज के दो नव - नक्षत्र बने। उस चुनाव में हम लोगों ने काफी मेहनत की थी, रात-दिन एक कर दिया था, नेताजी अक्सर प्रदेश के दौरे पर रहते थे।