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Chaudhary Charan Singh

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प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया)
बौद्धिक सभा

लोहिया, चरण व किसान आन्दोलन

पूरे देश में किसान आंदोलित व आक्रोशित हैं। यह आक्रोश व आंदोलन की पृष्ठभूमि एक या दो दिन अथवा महीनों में नहीं बनी अपितु किसानों व कृषि हित की हो रही अनवरत अनदेखी एवं सतत अवहेलना इसके मूल में है। किसान भारत के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक ताने-बाने की रीढ़ है। अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद असंगठित और सापेक्षतः अजागरुक होने के कारण असाध्य श्रम के बावजूद लाभ से वंचित है। अनुमानों के अनुसार सन् 2020 में 295,67 मिलियन टन खाद्यान्न उपजाने के बाद भी लगभग 16 हजार से साढ़े 16 हजार कृषक आत्महत्या के लिए बाध्य हुए। कृषि व किसानों के प्रति उदासीन दृष्टिकोण के कारण भारत में आजादी के सात दशक बीत जाने के उपरांत भी भूख का साम्राज्य है। विभिन्न देशों में भूख की स्थिति को निरुपित करने वाली वर्ष 2020 की ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट के अनुसार 107 देशों की सूची में भारत का 94वां स्थान है। इस सूची के अनुसार भारत में भुखमरी की गंभीर व भयावह स्थिति है। यहाँ भारत सुडान की श्रेणी में खड़ा है और प्रधानमंत्री जी अमरिका, जापान व चीन से बेहतर होने का भ्रम दे रहे हैं। सूची के अनुसार 93 और समग्रतः 179 देश भारत से बेहतर हैं। प्रतिव्यक्ति आय के दृष्टिकोण से हिन्दुस्तान 148 देशों और क्रय शक्ति समता के लिहाज से 129 देशों से पीछे है। समग्र मानवीय विकास में भारत का स्थान 189 देशों में 130 देशों के बाद है। इन खराब तस्वीरों के कारणों में कृषि व कृषक वर्ग की अवांछनीय उपेक्षा सर्वाधिक रेखांकित करने योग्य है। भारत की 57 फीसदी आबादी कृषि से जुड़ी हुई है। आजादी के समय कृषि का योगदान सकल घरेलू उत्पाद में पचास फीसदी से अधिक होता था जो घटते-घटते पांचवें हिस्से (विश्व बैंक के अनुसार 15.41ः केन्द्रीय सांख्यिकीय कार्यालय, भारत सरकार के अनुसार 16.67ः) से कम हो गया है, जबकि आज भी आधी आबादी को रोजी व रोजगार कृषि से ही मिल रही है। औद्योगिक विकास से सर्वाधिक अछूता वर्ग कृषक ही रहा है। किसान व श्रमिक गरीब-दर-गरीब होते जा रहे हैं और औद्योगिक घराने अमीरी के कीर्ति-कलश स्थापित करते हुए उन्हें मुँह चिढ़ा रहे है। वर्तमान कीमतों पर प्रति व्यक्ति आय एक लाख पैंतीस हजार रुपए से अधिक है। इस गणित से प्रति व्यक्ति आमदनी 11,254 रुपए मासिक हुई जबकि नाबार्ड के अनुसार एक कृषक परिवार की मौसिक औसत कमाई 8931 रुपए मात्र है। एक परिवार में यदि सात सदस्य हुए तो कृषि-समाज की प्रति व्यक्ति औसत आय मात्र 1275 रुपए ठहरती है जो चिंताजनक और दुःखद है। ऐसा नहीं कि भारत में समृद्धि नहीं है। अन्र्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा 20 नवम्बर 2020 को निर्गत रिपोर्ट की माने तो भारत क्रय शक्ति समता के अनुसार 8631.3 अरब डालर वाली तीसरी सबसे बड़ी व सशक्त अर्थव्यवस्था बन चुका है। अमरीका और चीन के बाद सबसे अधिक अरबपति भारतीय हैं। अरबपतियों के मामले में भारत रूस, फ्रांस, इंग्लैण्ड, स्विट्जरलैण्ड, जर्मनी जैसे सम्पन्न देशों से भी अधिक सम्पन्न व आगे है। उपरोक्त वर्णित आँकड़ें चीख-चीख कर कह रहे हैं कि भारत में समृद्धि है किन्तु गलत नीतियों के कारण उस समृद्धि से भारत की आम जनता विशेषकर कृषक वर्ग पूर्णतया व जबरिया वंचित है। श्रम और पँूजी के वर्ग-संघर्ष में सरकार श्रम की दोहाई देते हुए पूँजी के साथ खड़ी मिलती है। श्रम के पोषकों अर्थात किसानों व श्रमिकों में आक्रोश पनपना स्वाभाविक है। राजधानी दिल्ली के आस-पास जो किसान महीनों से आंदोलनरत है, उपेक्षाजनित आक्रोश की परिणति है।

किसानों के मन में केन्द्र सरकार के प्रति आशंका-भाव था ही जून में जारी खेती सम्बन्धित तीनों अध्यादेशों ने उनके मन को और अधिक आशंकित कर दिया। जिस तरह आनन-फानन में सरकार ने तीनों अध्यादेशों को बहुमत के बल पर कानून में बदला, शंका को और अधिक बढ़ा दिया। किसान सड़कों पर प्रतिकार करने उतरे तो सरकार ने पुलिस-बल का दुरुपयोग कर उनके शांतिपूर्ण आंदोलन जिसे सत्याग्रह की संज्ञा दी जा सकती है, को कुचलने का कुत्सित व असफल प्रयास किया।

सम्पूर्ण घटनाक्रम में महान प्रगतिशील समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया व किसान नेता व गणराज्य के प्रधानमंत्री रहे चैधरी चरण सिंह की याद आना स्वाभाविक है। एक दृष्टिपात कृषि व कृषकों के परिप्रेक्ष्य में दोनों महान विभूतियों की वैचारिक विरासत पर डालना समीचीन होगा। किसानों के संदर्भ में लोहिया और चरण सिंह समविचारी अथवा समान दृष्टिकोण के वाहक थे। वैचारिक साम्य के कारण ही 4 अप्रैल 1967 को लोहिया ने कहा था कि, ‘‘चरण सिंह गाँव व किसान के हित का प्रभावशाली प्रतिनिधित्व करते हैं, मैं चरण सिंह की प्रशंसा करता हूँ। वे केन्द्र में बेहतर विकल्प होंगे।’’, अप्रैल 27, 1967 को पेट्रियाट को दिए गए साक्षात्कार में लोहिया ने अपनी बात दोहराई कि यदि केन्द्र में चरण सिंह या अजय मुखर्जी गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व करेंगे तो ज्यादा पसंद करुँगा। अप्रैल 1967 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री और जुलाई 1979 चैधरी साहब को प्रधानमंत्री बनाने में लोहियावादियों की महती भूमिका थी। चरण सिंह ने जमींदारी उन्मूलन अधिनियम लाकर किसानों को शोषण से मुक्त कराने का सद्प्रयास किया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में चकबंदी को दृढ़तापूर्वक लागू करवाया। चरण सिंह की सरकारें लोहिया के विचारों पर चलने वाली किसान हितैषी सरकारें थीं। मंडी-प्रणाली में चरण सिंह के सुधारों को लोहियावादी मुलायम सिंह व शिवपाल सिंह ने आगे बढ़ाया और नई राजस्व संहित लाए जो किसानों को न्याय दिलाने के लिए थी। अन्न समिति अन्न समिति की बैठक में घनश्याम दास बिड़ला का विरोध करते हुए लोहिया ने कहा था कि किसानी-उपज को औद्योगिक उत्पादों की तरह लाभकारी बनाना होगा। वे चाहते थे कि गाँवों में एकाकी और दरिद्रता की जिंदगी काटने वाले करोड़ों किसान नई संस्कृति के जन्मदाता हों और इसी तरह मुल्क के किसान देश की दैनंदिन जीवन पर स्थायी और सतत असर डालें। लोहिया का यह सपना आज भी साकार होने के लिए तड़प रहा है। जो लोग किसानों के आंदोलन व प्रदर्शन के औचित्य पर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं, उन्हें एक बार गाँधी, लोहिया व चरण सिंह का गौरवशाली इतिहास पढ़ना चाहिए। किसानों की समस्या को प्रभावशाली स्वर देने एवं समाधान के लिए 1949 में हिन्द किसान पंचायत की स्थापना हुई जिसका अध्यक्ष लोहिया जी को चुना गया था। इसके बाद 25 नवम्बर 1949 को गोमती के तट पर किसानों का विशाल जमावड़ा, प्रदर्शन व विधान सभा तक मार्च हुआ जिसका उद्देश्य गन्ने का कम दाम व दस गुना लगान की जबरिया वसूली का विरोध था। उस समय की सरकार ने भी किसानों का अनादर किया। प्रदर्शन रोकने के लिए पुलिस का प्रयोग किया। किसान-आंदोलन भड़क उठा। आंदोलन की अगुवाई आचार्य नरेन्द्रदेव व लोहिया के हाथों में थी। लखनऊ किसान जन प्रदर्शन के बाद लोहिया की अध्यक्षता में 26 फरवरी 1950 को हिन्द किसान पंचायत का आयोजन किया गया। इसी बीच 20 अप्रैल से 17 मई 1951 को किसानों के व्यापक हित में रचनात्मक कार्यक्रमों की श्रृंखला चलाई गई जिसका प्रतीक-चिन्ह ‘‘फावड़ा’’ था। दिल्ली में किसानों के लिए व्यापक प्रदर्शन के लिए 3 जून 1951, रविवार को जनवाणी दिवस के रूप में मनाने व जन-प्रदर्शन करने का निर्णय लिया गया। कश्मीर से कन्याकुमारी तक के किसान व कार्यकर्ता दिल्ली पहँुचे। महात्मा गाँधी की समाधि पर अन्याय के अहिंसक प्रतिकार की शपथ ली और मीलों लम्बा जुलूस राष्ट्रपति भवन की ओर कूच किया। यह सफल प्रदर्शन अपनी छः सूत्रीय माँगांे की सनद लोहिया द्वारा तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद के हाथों में देकर समाप्त हुआ। वर्तमान समय में किसान सर्दियों में धरने पर बैठे हैं और राष्ट्रपति महोदय संज्ञान में नहीं ले रहे। प्रधानमंत्री महोदय उद्योगपतियों व नौकरशाहों के साथ व्यस्त हैं। सरकार, पूँजीपति व जमींदार के त्रिगुट ने 1951 में शिमोगा जिले के कागाडू गाँव में 70 किसानों की 200 एकड़ जमीन छीन ली। वहाँ एक महीना लड़ने के बाद सोशलिस्टों ने लोहिया को किसान आंदोलन की अगुवाई के लिए बुलाया। लोहिया को 14 जून 1951 की आधी रात को गिरफ्तार कर बंगलूरू जेल में निरुद्ध कर दिया गया। पहली जुलाई को पूरे देश व देश के बाहर लंदन व न्यूयार्क में लोहिया एवं किसानों के लिए प्रदर्शन हुए। सरकार को झुकना पड़ा लोहिया रिहा हुए और किसानों को उनकी जमीन वापस मिली। इतिहास साक्षी है कि आजाद भारत में पहला किसान आंदोलन एवं किसानों के लिए गिरफ्तारी के सूत्रधार व नेतृत्वकर्ता राममनोहर लोहिया थे। पहले सरकार, व्यापारी व जमींदार का त्रिगुट किसानों का खूनचुसवा शोषण करता था, अब इसका स्थान सरकार, उद्योगपति व अफसरों का त्रिगुट ले लेगा। नए तीनों बिलों ने उनकी राह आसान कर दी है।

यह भी सनद रहे कि मंडियों को समाप्त करने व मंडियों की उम्र पूरी होने की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने किसानों की बोली हिन्दी या तमिल में नहीं अपितु उद्योगपतियों व अफसरों की भाषा अंग्रेजी में अधिकारियों द्वारा 11 नवम्बर 2019 को आयोजित देशी-विदेशी पूँजीपतियों की बैठक में की थी। किसानों के हित में जिस तरह के कठोर निर्णय चैधरी चरण सिंह ने लिए थे, वैसे ही निर्णय नरेन्द्र मोदी सरकार को भी लेने चाहिए। किसानों के हित में देश का हित है। चैधरी साहब का स्पष्ट मत था कि किसानों की समस्याओं को वही समझ और सुलझा स कता है जिसकी सोच किसानों के समान होगी। बिना गाँव के उठे, देश समृद्धिशील नहीं हो सकता। ग्रामीण भारत ही असली भारत है और भारत की समृद्धि का रास्ता गाँवों और खेतों से होकर गुजरता है। हमें लोहिया व चरण सिंह को याद करते हुए इनके प्रयासों के मर्म के समझना होगा। किसान आंदोलन की सफलता में राष्ट्रहित और समाज का सर्वोत्मुखी कल्याण निहित है।

(लेखक बौद्धिक सभा के अध्यक्ष हैं व प्रसपा के मुख्य प्रवक्ता है)