‘‘नेहरु की बजाय चरण सिंह सही सिद्ध हुए’’
आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) ने बीसवीं सदी के प्रारम्भ में पं0 मदन मोहन मालवीय, तेज बहादुर सप्रू, मोतीलाल नेहरु और वजीर हसन जैसे नेताओं की एक आकाश गंगा को जन्म दिया। लेकिन वस्तुतः गाँधी-युग में यह प्रांत अपने उरुज पर आया। असहयोग आन्दोलन के दौरान जवाहर लाल नेहरु, पुरुषोत्तम दास टण्डन, गोविन्द बल्लभ पंत, आचार्य नरेन्द्र देव, सम्पूर्णानन्द, रफी अहमद किदवई और मोहनलाल सक्सेना जैसे विशिष्ट व्यक्तियों ने ख्याति पाई। जवाहर लाल नेहरु इनमें सबसे बडे़ कद के नेता थे। चैधरी चरण सिंह, चन्द्रभानु गुप्ता, कमलापति त्रिपाठी और बनारसी दास इन नेताओं के शिष्य थे, जिन्होंने राज्य में महत्वपूर्ण ओहदे सम्हाले।
नई पीढ़ी के नेताओं में चरण सिंह सिर्फ सबसे महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि कई मायनों में सबसे ज्यादा असाधारण नेता भी थे। उनके बीच चरण सिंह ही ऐसे व्यक्ति थे, जो समाजवादी विचारों से अछूते थे और ये विचार कांग्रेसी नेताओं और उनके अनुवर्तियों के सामान्य गुण थे। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक बड़े नेता दादा भाई नौरोजी ने भारत के स्वराज्य के संघर्ष के लिए, अन्तर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस में हिस्सा लिया था, जिसके कारण इंग्लैंड में उनके उदारवादी मित्र और भारत में नरम दल वादी साथी उनसे नाराज भी हुए। दादाभाई के इस कदम की प्रशंसा करते हुए लोकमान्य तिलक ने बड़े पंूजीपतियों और जमींदारों द्वारा गरीबों के शोषण के खिलाफ विश्वव्यापी समाजवादी आन्दोलन की निःसंदेह जीत होगी। उन्होंने कहा कि भारत में विदेशी नौकरशाही तंत्र से लड़ने के लिए दुनिया के समाजवादियों से मदद लेने में कुछ गलत नहीं है। तिलक के साथ लाला लाजपत राय, सी.आर. दास और दूसरे कई पुराने नेताओं के मन में समाजवादी उद्देश्य के प्रति सहानुभूति थी। महात्मा गाँधी ने, जिन्होंने कांग्रेस आंदोलन को स्वरूप प्रदान किया, अपने आपको समाजवादी या साम्यवादी कहा। लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट किया कि उनके समाजवाद में हिंसा, राज्यवाद और केन्द्रीयकरण लेश मात्र भी नहीं था। जहां तक जवाहर लाल नेहरु और सुभाषचन्द्र बोस का सवाल है, उन्होंने समाजवाद में अपनी आस्था खुले तौर पर घोषित की।
उत्तर प्रदेश की कांग्रेस समाजवादी विचारों से रंगी हुई थी और एक मौलिक कृषि कार्यक्रम के प्रति प्रतिबद्ध थी, जिसमें जमींदारी प्रथा को खत्म करना और राज्य एवं किसानों के बीच से बिचैलियों को समाप्त करना शामिल था। लेकिन यह कुछ आश्चर्य की बात है कि जहाँ उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नेता और समकालीन लोग समाजवादी विचारों से प्रभावित थे, वहीं चरण सिंह इन प्रभावों से पूरी तरह अछूते रहे थे। मेरी राय में इसके दो कारण हैं। पहला, उनकी प्रेरणा के स्रोत सबसे पहले स्वामी दयानंद और फिर महात्मा गाँधी थे। दूसरा कारण यह था कि समाजवादी विचारों से उनका परिचय कभी भी ठीक तरह से नहीं हुआ था। वे एक गैर औद्योगिक क्षेत्र के व्यक्ति थे और उन्होंने मुझसे कई बार यह कहा कि औद्योगिक पूंजीवाद की कार्यप्रणाली के बारे में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं है। बहरहाल, वह बड़े व्यापारियों और एकाधिकारियों के प्रभुत्व के खिलाफ थे। यह उनके और समाजवादियों के बीच एक कड़ी की तरह होना चाहिए था। मगर ऐसा नही हुआ और इसका बड़ा कारण यह है कि उनकी सोच का मुख्य विषय औद्योगिक शोषण नहीं, बल्कि कृषि सम्बन्धी समस्या और सामाजिक सवाल थे।
समाजवादी दल जमींदारी प्रथा को खत्म करने के पक्ष में था। जवाहर लाल खुद इसके कट्टर समर्थक थे। चरण सिंह के मन में सरदार पटेल के लिए बहुत श्रद्धा थी, लेकिन उन्हें मालूम नहीं था कि सरदार पटेल जमींदारी खत्म करने के पक्ष में नहीं थे। उत्तर प्रदेश में वस्तुतः जवाहर लाल, गोविन्द बल्लभ पंत, पुरुषोत्तम दास टण्डन और समाजवादियों ने कांगे्रस को, इस दिशा में कदम उठाने के लिए मजबूर किया। जब चरण सिंह एक कनिष्ठ मंत्री बने महान् भूमि-सुधार विधेयक विधान मण्डल में पारित करवाने की जिम्मेदारी उन्हंे सौंपी गयी, तब तक समाजवादी कांग्रेस छोड़ चुके थे और भूमि-सुधार के मामले में उन दोनों के बीच सहयोग की कोई संभावना नहीं थी।
चैधरी साहब भूमि सुधार कानून को बिना प्रतिक्रियावादी परिवर्तन के पास करने तथा उसको निष्फल बनाने के निहित स्वार्थों द्वारा किए गए प्रयासों के खिलाफ लड़े। हालांकि हमेशा उनकी चल नहीं पाई किन्तु इसमें संदेह नहीं कि मुख्य रुप से उन्हीं की लगन और समर्पण के कारण उत्तर प्रदेश भूमि-सुधार कानून का प्रगतिशील चरित्र बना रहा।
इसलिए चैधरी को कुलकों का समर्थक कहना अन्याय है। वह जमीन के स्वामित्व के मामले में व्यापक असमानता के खिलाफ थे और एक किस्म के कृषि-प्रजातंत्र के पक्षधर थे। औद्योगिक क्षेत्र में वह एक ऐसी विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था के पक्ष में रहे, जिसमें बड़े पैमाने पर तकनीक का प्रयोग सिर्फ उन क्षेत्रों में सीमित हो, जहां उसकी निहायत जरूरत है।
तब समाजवादी कार्यक्रम में ऐसा क्या था, जिस पर चैधरी चरण सिंह का आक्षेप था? इसका कारण जमींदारी खत्म करना नहीं हो सकता था। इसका कारण पंूजीवाद का विरोध नहीं हो सकता था। इसका कारण लोहिया द्वारा छोटी इकाई की तकनीक का समर्थन भी नहीं हो सकता था। मेरी समझ से इसका मुख्य कारण राज्य द्वारा खेती और सामूहिक खेती का समर्थन था, जिससे चरण सिंह के बुनियादी मतभेद थे। जवाहर लाल ने बार-बार व्यक्तिगत खेती की जगह सामूहिक और सरकारी खेती पर जोर दिया था। प्रारम्भ के कांग्रेस-समाजवादी कार्यक्रम ने भी सामूहिक खेती का समर्थन किया, हालांकि बाद में समाजवादियों ने इस कार्यक्रम को त्याग दिया था। लेकिन चरण सिंह को समाजवादियों की नयी सोच और उनके द्वारा अपने परम्परागत कार्यक्रमों के पुनर्मूल्यांकन की जानकारी नहीं थी। चरण सिंह जानते थे कि अपने खेत से किसानों का कितना गहरा जुड़ाव है। वे मानते थे कि सामूहिक खेती मानव स्वभाव के विरुद्ध है। उन्हंे विश्वास था कि सामूहिक या सरकारी खेती से उत्पादन पर बुरा असर होगा और मुल्क विनाश की ओर अग्रसर होगा।
पोलैण्ड, चीन, यूगोस्लाविया और अब सोवियत रूस जैसे साम्यवादी देशों का अनुभव यह बतलाता है कि चैधरी साहब की राय सही थी। खेती के जबरन सामूहिकीकरण से सोवियत कृषि को पहुँची हानि से उबारने के लिए सोवियत सुधारक 1953 से भरसक कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए, क्योंकि उन्होंने व्यवस्था में मौलिक सुधार किए बिना ही सुधार लाने की कोशिश की। सामूहिक किसानों को जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े देने की सोवियत पद्धति काफी पुरानी है। जमीन के इन टुकड़ांे की, जिन पर किसान फल के पेड़, सब्जियां लगाते थे और मुर्गी, सुअर, गाय आदि पालते थे, उत्पादन क्षमता हमेशा बहुत ज्यादा रही है, फिर भी सोवियत नेताओं ने इससे आवश्यक सीख नहीं ली। बुरे हाल में फंसी सोवियत कृषि को बचाने के लिए गोर्वाचोव हिम्मत के साथ कई वक्ताओं ने यह विलाप किया कि ‘‘ग्रामीण क्षेत्र तबाही में है।’’ गोर्वाचोव ने अब पट्टेदारी पद्धति के प्रयोग की बात चलाई है। यह और कुछ नहीं बल्कि पिछले दरवाजे से निजी सम्पत्ति की व्यवस्था को लागू करना है। लेकिन मूल्य की गारंटी, ऋण देने वाली संस्थाओं और कृषि से सम्बद्ध एजेंसियों से अवश्य करना चाहेगा? निःसंदेह गोर्वाचोव के रास्ते में कई मुश्किलें थीं, इस सोवियत प्रयोग से बहुत उम्मीदें थीं और इससे यह पता चलता है कि चरण सिंह द्वारा सामूहिकीकरण और सहकारीकरण का विरोध दुराग्रहपूर्ण नहीं था। सहकारी खेती पर जवाहरलाल नेहरु द्वारा प्रायोजित नागपुर प्रस्ताव का (1959) चैधरी साहब ने साहसपूर्वक विरोध किया था, जो मात्र-पत्र ही रहा। इससे चरण सिंह की समझ सहीे साबित होती है।
सामाजिक व सांस्कृतिक नीति के क्षेत्र में चरण सिंह के विचारों में कुछ विरोधाभास या अन्तरर्विरोध रहे हैं। वह हिन्दू एकता के विचारों से जहां आकर्षित हुए थे, वहीं उन्होंने परम्परागत श्रेणीबद्ध जाति व्यवस्था, जिसके कारण निम्न श्रेणी के लोग निकृष्ट माने जाते थे, पूर्णतया अस्वीकार किया। चरण सिंह ब्राम्हणवाद और उसकी अवधारणाओं के खिलाफ थे। जनसंघ-भाजपा और आर.एस.एस. के साथ उनके संदिग्ध सम्बन्ध का मुख्य कारण यही था। हिन्दुओं के गौरवपूर्ण अतीत की उनकी बातें उन्हें उनकी ओर खींचती थीं लेकिन उनके उच्च जातीय भारी अक्खड़पन के कारण चरण सिंह का आकर्षण विरोध में बदल गया। वर्ण की पवित्रता का पक्ष लेना उनकी दूसरी अस्पष्टता थी। चूंकि हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का सार तत्व जाति है। जाति संस्था का विरोध और हिन्दू सुदृढ़ीकरण के प्रति जुड़ाव के बीच का विरोधाभास, कम से कम अल्पकाल में, खत्म नहीं हो सकता। चूंकि चरण सिंह वर्ण-व्यवस्था में कोई भेद नहीं देखते थे, उनके अनुयायी उन्हें प्रतिक्रियावादी मानते थे। इसलिए वे उनका विश्वास नहीं जीत पाये। कुछ वर्षाें तक महात्मा गांधी भी वर्ण-व्यवस्था के पक्षधर रहे और उन्होंने अन्तर्जातीय और अन्तर साम्प्रदायिक विवाहों को गैर-जरुरी ही नहीं, हानिकारक भी माना। बाद में उन्होंने पूरी तरह अपने विचार बदल दिए और ऐसे मिश्र विवाहों के कट्टर समर्थक बने। चैधरी साहब भी मिश्रित विवाहों के बड़े समर्थक थे और इसलिए मेरी राय में, उन्हें जातिवादी कहना अन्यायपूर्ण होगा।
हालांकि कृषक लोकतंत्र और विकेन्द्रीकृत अर्थ-व्यवस्था में उनका गहरा और ईमानदार विश्वास था, उन्होंने महसूस किया कि सत्ता के बगैर कुछ भी नहीं किया जा सकता। इसीलिए वे सत्ता चाहते थे और उसे पाने के लिए उन्होंने विरोधाभासी गठबंधन भी किए। गैर-कांग्रेसी पार्टियों और कांग्रेस (1967 और 1970), दोनों के साथ उन्होंने संबंध बनाए। वे खालिस रूप से सत्ता के पीछे भागने वाले राजनीतिज्ञ नहीं थे। चूंकि वे अपनी आस्थाओं और कार्यक्रम से गहरे रूप से जुडे़ हुए थे, सत्ता में आने पर उन्हें लागू करने में वह कभी नहीं झिझके, और इस प्रक्रिया में उन्होंने हमेशा पदच्युत होने का खतरा मोल लिया। यही कारण है कि वह अपने पदों पर हमेशा थोडे़ समय के लिए रहे- जैसे 1967-68, 1970, 1977-78 तथा 1979 में। जब भी वह किसी पद पर रहे, एक सशक्त और ईमानदार शासक के रूप में उनकी ख्याति रही और वह कामचोर कर्मचारियों के सिरदर्द बने रहे।
चरण सिंह के व्यक्तित्व का विकास गांधी-युग में हुआ और वे कई बार जेल गए थे, उनका विचार था कि लोकतंत्र में नागरिक अवज्ञा के लिए कोई जगह नहीं है। अन्याय के निदान के लिए सरकार को वोट के जरिये बदलना चाहिए, ऐसी उनकी मान्यता थी। हम लोग उनके इस विचार से कतई सहमत नहीं थे। चैधरी दुराग्रही नहीं थे और उनकी राय बदलवा पाने में मैं सफल हुआ। अन्तिम वर्षाें में उन्होंने इस बात की जरूरत को स्वीकार किया कि प्रत्यक्ष बुराइयों को दूर करने के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष आवश्यक है।