रोजनामचा
‘‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए
हमसफर कोई तो हो वक्त के वीराने में,सूनी आँखों में कोई ख़्वाब सजाया जाए
गम अकेला हो तो सांसों को सताता है बहुत,दर्द को दर्द का हमदर्द बनाया जाए
जिन चिरागों को हवाओं का कोई खौफ नहीं,उन चिरागों को हवाओं से बचाया जाए
रोशनी की भी हिफाजत है इबादत की तरह,बुझते सूरज से चिरागों को जलाया जाए’’
चचा निदा फाज़ली की इस लोकप्रिय गज़ल के मतले का शेर है
‘‘अपना गम ले के कहीं और न जाया जाए, घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाए’’
इस गज़ल को मैं सुनता और पढ़ता तो कई साल से रहा हूँ, लेकिन इसके एहसास व गहराई से अवगत नहीं हो सका, यह कार्य इस बार की दीवाली में हो गया। मैं निदा चचा की तर्कना को इस बार समझा कि मस्जिद दूर होने पर रोते हुए बच्चों को क्यों हँसाना चाहिए?कार्तिक कृष्ण पक्ष चैदहवीं छोटी दीवाली का दिन था, मौसम अपनी अठखेलियाँ खेलने लगा था, सर्दी गुनगुनाने लगी थी, संगम हमेशा अच्छा होता है, सर्दी और गर्मी के संगम के दिन थे, मौसम के सुहावनेपन का जिक्र यहाँ बहुत ज़रूरी नहीं लेकिन एक सच्चाई उद्धरित करना आवश्यक है कि हर सुहानी और अच्छी दिखने वाली चीज हर समय सुहानी व अच्छी नहीं होती। जो प्रेयस्कर हो वो श्रेयस्कर भी हो, ऐसा संयोग दुर्लभ होता है। इसी मौसम में लोग बीमार अधिक होते हैं, जरा सी लापरवाही बिस्तर और बीमारी की बाँहों का कैदी बना देती है। मेरे साथ भी यही हुआ, मुझे भी बुखार और हरारत ने हरा दिया। दीवाली पर सभी माताओं की तरह मेरी भी माँ की इच्छा थी कि मैं त्यौहार में उनके पास रहूँ, मैंने कह भी रखा था, पिछले 6-7 सालों में शायद ही कोई त्यौहार उनके साथ मनाया हो, अपनी माँ को मुझसे ज्यादा दुःख देने वाला बेटा इस धरती पर और न होगा। न जाने विधाता ने कैसी तकदीर लिखी और कैसा मिजाज दे दिया कि जिन्हंे सबसे अधिक सुख देना चाहिए, मैं उन्हीं के दुःख का सबसे बड़ा कारण बन गया। जिनकी उँगलियों को पकड़कर पैरों नेे चलना सीखा, जब चलना सीख लिया तो उन्हीं से दूर चले गए। न जाने किस जन्म का पुण्य है कि मुझे ऐसे माता-पिता मिले, जिन्होंने कभी मेरे पैरों में जंजीर नहीं बाँधी, कभी कदम रुकने नहीं दिया, कभी दिया तो यह सिर्फ नसीहत कि ईमानदारी का दामन कभी न छोड़ना। वैसे भी इस बार बाँसी स्थित मकान-मालिक हाजी मकसूद साहब की छोटी बेटी सोनी आपा के असामयिक निधन के कारण हमारे परिवार में दीवाली नहीं मनायी जा रही थी। पिछले 33 साल से हम लोग बाँसी में जिस मकान में रह रहे हैं वो एक मुस्लिम परिवार का है। उनकी चारों पुत्रियाँ मुझे ही अपना भाई मानती हैं, रक्षाबंधन में पूरे रीति-रिवाज के साथ वे मुझे राखी बाँधती आ रही हैं। शायद ही कोई राखी का पर्व छूटा हो जब गजाला आपा व सोनी दीदी की राखी मुझ तक न पहुँची हो। तैंतीस सालों में सदी बदल गई, उत्तराखण्ड के रूप में नए राज्य के उदय से उत्तर प्रदेश का नक्शा व भूगोल बदल गया, विश्वनाथ प्रताप सिंह, नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह, रामप्रसाद गुप्ता समेत 9 मुख्यमंत्री बदल चुके, कितनी नदियाँ इस दौरान सूख चुकी लेकिन पिछले तीन दशक में हमारा मकान और मकान-मालिक तथा दोनों परिवारों का स्नेहासिक्त रिश्ता यथावत है। ऊपर मुस्लिम परिवार और नीचे एक ब्राम्हण परिजन, यही हिन्दुस्तान की यकजहती और विशेषता है। इस बार मैं भी खुश था कि बाँसी जाकर दीवाली मनाऊँगा लेकिन नियति को मंजूर न था, सोनी आपा के इंतकाल जनित दुःख के कारण अन्यमनस्क होना स्वाभाविक था। मैं पिछले पाँच-छः दिनों से कहीं आ-जा भी नहीं रहा था, यहाँ तक कि शिवपाल जी के यहाँ भी नहीं, जहाँ दिन में एक बार आदतन और अकारण भी जरूर जाता हूँ। दोपहर का सूरज अस्तांचल की ओर मुड़ चुका था, शाम सांवली शाल ओढ़े घर से निकलने वाली थी, तकरीबन पाँच या साढ़े पाँच बजे मन में आया कि शिवपाल जी के यहाँ चलते हैं, विधायक निवास से निकला ही था कि नजर एक गंदे से बच्चे पर पड़ी जिसके मैले-कुचैले कपड़े कई जगह फटे हुए थे, कमोवेश बाल और चमड़ी दोनों का रंग एक जैसा हो चुका था, वह बड़ी हसरत भरी निगाह से पटाखे की दुकान की ओर देख रहा था। मैंने स्कूटी रोक दी, उस बच्चे के हाव-भाव को देखने लगा। कभी वह पटाखे की दुकान पर जिद करते बच्चों को देखता तो कभी उनकी जिद पूरा करते हुए उनके अभिभावकों को, वह न जाने क्या सोचता और उदासी के सागर में डूब जाता। बच्चे का चेहरा और आते-जाते लोगों को देखते हुए अचानक 1964 में बनी फिल्म दोस्ती का दृश्य याद आया जिसमें एक लड़का गाना गा रहा है कि -
‘‘जाने वालों जरा मुड़के देखो मुझे, मैं भी इंसान हूँ, तुम्हारी तरह। जिसने सबको रचा अपने ही रूप से, उसकी पहचान हूँ तुम्हारी तरह।’’ साहिर लुधियानवी का यह गीत जिस दर्द को रेखांकित कर रहा था वह दर्द मुझे उस बच्चे के चेहरे पर साफ दिख रहा था। यदि वह भी ईश्वर का ही अंश व रूप है तो इतना वीभत्स व असहाय क्यों?कम से कम उसे भी तो मुस्कराने का हक होना ही चाहिए। मैं अकिंचन व अकिंचित्कर क्या कर सकता था। मैंने उसे अपने पास इशारे से बुलाया, वह विस्मय और संशयवश मुझे देखने लगा, उसे लगा कि मैं दुकान का मालिक हूँ और उसे डाँटने या पीटने के लिए बुला रहा हूँ, वह दूसरी दिशा में भागने लगा, मैं भी प्रतिबद्ध समाजवादी, दौड़ा कर पकड़ा और पूछा क्यों भाग रहे हो?उसने कहा ‘‘साहब, गलती होई गवा, हम चोर नाहीं, साहब हमका छाँड़ी देव, वह बुरी तरह काँप रहा था, पता नहीं डर के कारण काँप रहा था या ठण्डी के कारण, मेरे जेब में दो सौ रुपए थे, सौ रुपए हाथी-घोड़ा खरीदने के लिए रखा था और सौ रुपए स्कूटी में पेट्रोल डलवाने के लिए, यहाँ हाथी-घोड़े से अभिप्राय चीनी की मिठाई से है जो दीवाली में बनती है। मैंने उसे सौ रुपए दिए कि जाओ पटाखे खरीद लो, उसने बड़ी मासूमियत से कहा ‘‘साहब पइसा दइदो तो माई का देइदेंहें, बीमार होंय, पटाखा तो फूट जाइहैं, इ पइसा से माई बदे दवाई लेइहैं (साहब पैसे दे दो तो ले जाकर माँ को दे दूँ, पटाखा तो कुछ ही देर में फूट जायेगा, इस पैसे से माँ की दवाई हो जायेगी)। मैं उस दो फुट के बच्चे की बात सुनकर हतप्रभ था, गरीबी ने उसे बूढ़ा बना दिया, अपनी माँ के इलाज के लिए पटाखे की तिलाँजलि देने वाले उस बच्चे के आगे मैं खुद को छोटा पा रहा था, मैंने वे सौ रुपए भी दे दिए और वापस लौट आया, तभी मेरी मोबाइल पर धर्मेन्द्र जी का फोन आया कि मंत्री जी आपके यहाँ आ रहे हैं। मुझे बड़ी सुखद अनुभूति हुई, ऐसा लगा जैसे उमस भरी शाम में अचानक मलय समीर बहने लगा हो, समुन्द्र के किनारे खड़े होने पर जो हवा लहरों को छूती हुई शरीर को स्पर्श करती है और उमश और तपिश को एक झटके में मधुरिमा दे देती है, कुछ वैसा एहसास हुआ। मैं जल्दी-जल्दी बिखरी हुई किताबें और कपड़ों को सहेजने लगा, क्या पता उनके साथ कौन हो?पाँच या छह मिनट बाद शिवपाल जी आ पहुँचे, उनकी सादगी बेमिसाल है, वे मुझे इसलिए बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें बनावट व आवरण जैसा कुछ भी नहीं, जैसे हैं, वैसे ही दिखते हैं, वे निश्छल मुस्कान व मासूमियत वाले सरलतम व्यक्ति हैं जिनसे आप कुछ भी कह सकते हैं, जिसकी मौजूदगी मनोबल बढ़ाने व अपनीयता जगाने वाली होती है। शिवपाल जी मकान में आने के बाद किताबों के ढ़ेर को देखते ही बोले, इतनी किताबें कब पढ़ते होगे? उनके साथ कोई नहीं था, मेरी इज्जत बच गई क्योंकि उस समय मेरे पास न कोई मिठाई थी, न दूध कि चाय-पानी करवा सकता। एक अभिभावक की भाँति घर का निरीक्षण करने के बाद वे खुद ही किचन में गए और पानी निकाल कर पिया, मैंने कहा कि दूध लेकर आता हूँ, चाय पी लीजिए। उन्हांेने कहा, 7 कालीदास चलो वहीं चाय पियेंगे। मुझे अटपटा लग रहा था कि वे आए और मैं उन्हें एक कप चाय तक न पिला सका। मेरी हसरत मिट चुकी थी, थकान भी काफूर हो चुका था। रास्ते में मैंने उनसे बच्चे और पटाखे वाली बात बताई, इस पर वे बोले कि पिछली बार जैसे ईद यतीमखाने में मनाया गया था, वैसे ही दीवाली अनाथ बच्चों के बीच मनाया जाय। मानवीय मामलों में शिवपाल बेहद संवेदनशील व भावुक हैं, एक कार्यक्रम में संचालन करते हुए कवि श्रान्त ने उनके लिए ठीक ही कहा था-
‘‘सारी दुनिया उसको पत्थर कहती है,मैंने ये महसूस किया वो मखमल है’’
मैंने कहा कि यह अच्छी बात है, इससे अच्छी दीवाली और क्या होगी। शाम को साढ़े सात बजे तय हुआ कि कल दीवाली के अवसर पर अनाथ बच्चों में मिठाई व पटाखे बाँटे जायेंगे। धर्मेन्द्र व अमरीश भाई ने मिल कर 2 घंटे के अंदर कम से कम दो हजार बच्चों के लिए फुलझडि़यों और मिठाइयों का इंतजाम करने की बात कही। मैं वापस अपने आवास आ गया, अपने साथी देवी प्रसाद यादव को लगाया कि सारे अनाथालयों का पता करें, वो तीन घण्टे के अंदर घूम-घूम कर लखनऊ के सारे अनाथालयों का पूरा डाटा ले आया। तैयारी होने लगी, राजेश अग्रवाल, अजय त्रिपाठी ‘‘मुन्ना’’, डी0पी0 यादव के साथ तय हुआ कि कल सुबह 6 बजे से बाँटना शुरू किया जाएगा ताकि तीन बजे तक वितरण कार्य हो जाएगा। 10 बजे रात में एस0एन0सिंह जी का मंत्री जी के यहाँ से फोन आया कि वे बुला रहे, गया तो पता चला कि भोजन किए बिना चले गए, इसलिए मंत्री जी खफा हो रहे थे। बाहर वाले कमरे में देखा कि ढेर सारी फुलझडि़यां और लड्डू के पैकेट सजे हुए हैं। अमरीश जी उन्हें सलीके से रखवा रहे थे, वे इस तरह से तन्मयता के साथ सहेजवा रहे थे जैसे पुजारी पूजा की तैयारी करता है। मैंने उत्सुकतावश देखा तो पाया बड़ी वाली फुलझड़ी और मोतीमहल के महंगे वाले शुद्ध देसी घी के लड्डू हैं। मेरे दिमाग में था कि बांटने के लिए हल्की-फुल्की फुलझड़ी और सस्ती मिठाई मंगाई जाएगी। मैंने धर्मेन्द्र भाई से पूछा कि इतनी महंगी वाली फुलझड़ी क्यों ले आए, बाँटना ही तो है, उनका जवाब निरूत्तर करने वाला था कि मंत्री जी का निर्देश है कि अच्छे से अच्छा सामान दिया जाएगा ताकि बच्चों को यह न लगे कि सिर्फ औपचारिकता निभाया जा रहा है। मंत्री जी ने भोजन पर बुला लिया, मैंने दीवाली अनाथ बच्चों में मनाने वाली खबर अखबार में देने की बात कही, वे अनिच्छुक दिखे, उनकी सोच है कि ऐसे काम मानवता और पुण्य के लिए होते हैं, इनका छपवाना ठीक नहीं। मेरी राय थी कि ‘‘बंद कमरे में इबादत कैसी?इसे प्रचारित करने से और लोग प्रभावित होंगे, वे भी आगे आयेंगे। दूसरे दिन 2 नवम्बर 2013 तदानुसार कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीवाली थी। सुबह ही उठा, माताजी का फोन आया कि पूजा कर लेना। पूजा आदि कौन करता, मैं नहा-धोकर 7 कालीदास पहुँचा, वहाँ शिवपाल जी पहले से ही तैयार बैठे थे, लोगों से मिल-जुल रहे थे। चर्चा के दौरान मैंने ये बातें दो पत्रकार मित्र परवेज अहमद और फैजल फरीद को बताई। परवेज भाई ने इसे अपने अखबार के पहले पन्ने की खबर बना दिया। सही मायने में संवेदना और मानवीय दृष्टिकोण से यह प्रथम पृष्ठ की खबर भी थी। राजेश अग्रवाल व राजू श्रीवास्तव की गाड़ी में मिठाई तथा अजय त्रिपाठी और डी0पी0 की गाड़ी में फुलझडि़याँ रखी गई। मंत्री जी को जब बताया कि मिठाई व फुलझडि़याँ अधिक मात्रा में हैं तो उन्होंने कहा कि यतीम (मुस्लिम) बच्चों को भी दिया जाय, बच्चे खुश होंगे। एक यतीमखाने के मंुशी को फोन किया तो उसने बताया कि फुलझड़ी हम नहीं बाँटने देंगे, मिठाई दे दीजिए। मैंने फैजल भाई को बताया कि मुंशी ऐसा कह रहा है, क्या करें, दरअसल उस यतीम खाने का पता फैजल भाई ने ही दिया था। उन्होंने कहा, बाँटिए, बच्चों की खुशी से मतलब है, मुंशी से क्या मतलब। मैंने यहाँ राजनीतिक अनुभव का लाभ लिया। यतीमखाने के प्रबन्धक को फोन कर कहा कि शिवपाल जी मिठाई वगैरह बँटवाना चाहते हैं, मुंशी को कह दीजिए कि बाँटने दे। उन्होंने यही कहा और मुंशी जी की ‘‘ना’’ मूक स्वीकृति में बदल गई। हम लोगों को देखते ही, बच्चे चहकने लगे, उनकी मिठाई से अधिक फुलझड़ी में रुचि थी। बच्चों में शोर मच गया कि शिवपाल चाचा पटाखा ले के आए हैं, जबकि वे कहीं अन्यत्र यही कार्य कर रहे थे। छोटे बच्चे मुझे ही शिवपाल चाचा समझ रहे थे, एक बड़े बच्चे ने जैसे ही कहा कि मैं शिवपाल नहीं हूँ, सब उससे लड़ने लगे, दो गुट बन गया, खैर सबको पंक्तिबद्ध कर बाँटा गया। एक बच्चा लड्डू एक ही हाथ से ले रहा था, दूसरे हाथ की मुठ्ठी बंद थी, बार-बार आए तो उसी एक हाथ का प्रयोग करे। हम लोगों ने हाथ खोलवा कर देखा तो उसमें दो रुपए का सिक्का था, जिसकी हिफाजत वह खजाने की तरह कर रहा था। राजेश जी ने पूछा कि क्या करोगे, उसने बताया, ‘‘शैम्पू खरीदेंगे’’। दो रुपए के लिए उसकी जिजीविषा बहुत कुछ सोचने को विवश कर दिया। यतीमखाने से निकल कर मोती नगर पहुँच गया, जहाँ कुछ मानसिक व शारीरिक विकलांग बच्चियाँ भी थी। एक थोड़ी विक्षिप्त बच्ची दोबारा मिठाई लेने आई तो वहाँ की अधीक्षिका ने उसे पंक्ति से हटा दिया, वह गाली देते हुए रोने लगी, अजय त्रिपाठी व राजेश अग्रवाल जी ने उसे पंक्ति में आने को कहा। वह मिठाई लेकर एक कमरे की ओर भागी, मैंने राजू श्रीवास्तव से कहा, देखिए वह कहाँ जा रही है? हम लोगों ने देखा कि वह एक पैर से विकलांग बच्ची को अपने हाथ से लड्डू खिला रही थी। उसे खिला कर फिर आती और डाँट खाते हुए लाइन लगाती, यह दृश्य देख कर आँखें भर्र आइं। एक अनाथालय में एक बच्चा सिर्फ जंघिया पहने हुए था, उससे पूछा कि बेटा तुम्हें ठण्डी नहीं लग रही, उसने बड़ी मासूमियत से कहा ‘नहीं’। सच ही तो है मेरे देश में मौसम भी अमीरी और गरीबी देख कर असर करता है। शाम पाँच बजे धर्मानन्द तिवारी जी का फोन आया कि कुष्ठ रोगियों को बाँट दो, मिठाई और फुलझड़ी बची हुई थी, हम लोग उनके अगुवाई में कुष्ठ आश्रम पहुँचे, वहाँ बाँटा गया। वहाँ के कर्ता-धर्ता एक बंगाली हैं जिन्होंने दुआ पढ़ी। कुष्ठ आश्रम से लौटते समय पूरा बदन चुनचुना रहा था। आते ही गर्म पानी से आधे घण्टे तक नहाया। अंजना जी का फोन आया कि आकर दीवाली का प्रसाद खा लीजिए, अजय जी ने घर पर खाने को बुलाया ही था, नहाने के बाद सो गया। 2 घण्टे बाद जगा तो पेट और मन दोनों हल्के लग रहे थे। स्कूटी स्टार्ट कर शहर घूमने निकल गया, प्रसाद व भोजन लेने के पहले एक राउण्ड पूरे शहर का लगाया। अमावस्या की काली रात में खिलखिलाती व जगमगाती फुलझडि़याँ व राकेट पटाखे बड़े मोहक दृश्य दिखला रहे थे पर मुझे लग रहा था जिस तरह हम लोगोें ने दीवाली पर बच्चों के होठों को मुस्कान दिया, सही मायने में पूजा की। ऐसा लगा रहा था कि सफल तपस्या का फल पाकर अभी-अभी उठे हैं। मन मस्तिष्क में यही पंक्तियाँ गूँज रही थी...............
घर से मस्जि़द है बहुत दूर.............