चौधरी चरण सिंह प्रेरक-जीवन दर्शन
जैसे मा. नेताजी ने उदय प्रताप सिंह को ताकत आने पर राज्यसभा भेजा, यह रिश्तों और साहित्य का सम्मान ही तो है।
चौधरी साहब अपने सिद्धान्तों और धुन पर बिना नफा-नुकसान की चिन्ता किए बिना आगे बढ़ने वाले व्यक्ति थे। कई इतिहासकारों ने उन्हें जाटों का प्लूटो तक कहा है, वैसे भी राजा सूरजमल के बाद जाट उन्हें ही अपनी अस्मिता का प्रतीक-पुरुष मानते हैं। वे अपने पौरुष और पराक्रम से एक साधारण गाँव की झोपड़ी में पैदा होकर देश के सर्वोच्च पद तक पहुँचे। एक बार तो ऐसा हुआ कि विपन्नता के कारण घर-परिवार चलाने के लिए साइकिल, घड़ी व यहाँ तक स्त्री धन (मंगल सूत्र) तक बेचना पड़ा लेकिन चौधरी साहब ने राजनीति व सामाजिक समाज सेवा नहीं छोड़ा। हिन्दी के लिए चौधरी साहब ने काफी लड़ाई लड़ी। वे पूरे देश में एक भाषा को राष्ट्रीयता के लिए अनिवार्य तत्व मानते थे। गाजियाबाद में उन्होंने अपनी धूम मचाती वकालत को हिन्दी के लिए नुकसान में डाल दिया। 9 दिसम्बर 1948 को मेरठ में आयोजित 36 वें हिन्दी अधिवेशन को संबोधित करते हुए चरण सिंह ने अपनी भाषा संबन्धी नीति स्पष्ट किया कि, ‘‘ राष्ट्र भाषा का स्थान उसी को दिया जा सकता है, जिसकी शब्दावली, उच्चारण, लिपि और वर्णमाला अन्य प्रान्तीय भाषाओं की शब्दावली आादि के अधिक निकट हो, जिसकी लिपि सुगम और वैज्ञानिक हो, और जिसमें ऊँचे से ऊँचे साहित्यिक और वैज्ञानिक ग्रन्थ लिखे जा सकें, इन कसौटियों पर कस कर देखा जाय तो राष्ट्रभाषा पद पर केवल हिन्दी को ही आसीन किया जा सकता है।‘‘ बापू व लोहिया की तरह चौधरी साहब सरल व स्वाभाविक हिन्दी के प्रबल पक्षधर थे। अपने मंत्रित्व व मुख्यमंत्रित्व काल में उन्होंने सारा काम-काज हिन्दी में करने का प्रयास किया। नेताजी की भाषा नीति भी वही है जो चौधरी साहब की थी। लोहिया सामंती भाषा के खिलाफ थे, चौधरी साहब व नेताजी भी अपनी भाषा सम्बन्धी विचार को रेखांकित करते हुए नेताजी ने 11 अगस्त 1990 को इन्दौर में कहा, हमारी भाषा नीति स्पष्ट हो जानी चाहिए कि हम अंग्रेजी को हटाना चाहते हैं, मिटाना नहीं अंग्रेजी सार्वजनिक जीवन से हटनी चाहिए। लोकतंत्र लोकभाषा में चलेगा तो मजबूत होगा।’’ 1990 में नेता जी ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की सम्मिलित राज्य सेवा परीक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर चौधरी साहब की सोच को एक कदम आगे बढ़ाया। उन्होंने क्रांति रथ भी 14 सितम्बर 1987 को हिन्दी दिवस के दिन निकाला। चौधरी साहब की छवि भले ही बज्र के समान कठोर हो किन्तु उनका मन पुष्प के समान मधुर व मुलायम था। एक बार गाड़ी में बैठते समय दरवाजा बंद करते वक्त एक किसान को चोट लग गई। उसकी लहुलूहान अंगुली देखकर चौधरी साहब ने किसान के पहले इलाज का उचित प्रबन्ध किया और फिर आगे बढ़े। करतार सिंह काफी घबराए हुए थे कि चौधरी साहब क्या बोलेंगे लेकिन चौधरी साहब ने सिर्फ इतनी हिदायत दी कि गरीब और अनपढ़ लोगों की गरिमा का ख्याल रखा करें और दरवाजा ठीक से बन्द किया करें। वे अपने आप ज्ञान के सागर थे, इसके बावजूद भाषण देने के पूर्व काफी तैयारी कर के जाते थे। मुझे उनका ज्ञानवर्द्धक भाषण कई बार सुनने का पुनीत अवसर मिला है। उनकी स्मृति गजब की थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी 12 तुगलक रोड स्थित अपने मकान में रहे। उन्होंने 14 अगस्त 1979 को अपने सहयोगी करतार सिंह को फाइल देते हुए निर्देश दिया कि 15 अगस्त को ध्वजारोहण के पश्चात् यह फाइल याद कर दे देना, इसमें मेरा भाषण है। ध्वजारोहण के बाद जैसे ही करतार सिंह ने फाइल देनी चाही, उन्होंने मना कर दिया, बिना किसी कागज के पूरा भाषण दिया। चीन और तिब्बत के परिप्रेक्ष्य में लोहिया जी और चरण सिंह जी एकमत थे। उन्होंने चौपाल में अपनी विदेश नीति को इन शब्दों में देशी उदाहरण से समझाया, ‘‘ भाइयों, मान लीजिए, आपका एक खेत है और उससे सटा हुआ किसी का दूसरा खेत है।